विरासत का पेड़
विरासत का पेड़
ये किस्सा यूँ तो २४-२५
साल पुराना है परन्तु जहन में हमेशा तरोताज़ा रहता है | शायद ही कोई लम्हा होगा जब इस किस्से
और इससे जुडी सीख को मैं भूल पाया हूँ | बात उन दिनों की है जब मैं उत्तरप्रदेश के
एक छोटे से शहर में कार्यरत था | ये जगह चारो ओर से छोटे छोटे गाँवों से घिरी हुई
थी और हम लोगों को ताज़ी सब्जी , दूध अंडे इत्यादि इन्ही गाँव वालों द्वारा उपलब्ध
कराये जाते थे | ९० के दशक में मनोरंजन के साधन भी सिमित थे और सूचना प्रायोद्धिकी
भी उस समय नवजात अवस्था में थी | मनोरंजन का साधन सिनेमा , दूरदर्शन , रेडिओ और
समाचार पत्र थे पर इस शहर तक पहुँचाने में भी समाचारपत्रों को एक दिन लग जाया करता
था | मैं वहा फेक्टरी की कोलोनी में रहता था | हम लोग वहां बहुत से साथ काम करने
वालों के साथ घुलमिल कर रहते थे और छुट्टियों के दिन पिकनिक मनाने के लिए आस पास
के मंदिर , महल या खंडहरों में जाया करते थे | मेरा तीन चार परिवारों से घनिष्ठ सम्बन्ध बन गया था और हम सब
के परिवार भी एक दूसरे के बहुत ज्यादा नजदीक थे | ऐसे में रविवार को हम लोग अक्सर
घुमाने जाया करते थे | मैंने व् मेरे दोस्तों ने नयी नयी मारुती कर ली थी तो उसमे
बैठ कर घुमने का शौक भी सिर चढ़ कर बोल रहा था | उन्ही दिनों की एक बात है , हमारी
कॉलोनी में चार चार क्वार्टरों के ब्लोंक थे जिनमे दो फ्लैट जमीं पर और दो पहली
मंजिल के थे, नीचे वाले फ़्लैट के आसपास बगीचे के लिए जमीन थी जबकि ऊपर वाले फ़्लैट
को छत थी जिसपर हम थोड़ी बागवानी कर लेते
थे | मैं पहली मंजिल के फ़्लैट में रहता था
हमारे नीचे वाले फ़्लैट में एक परिवार रहता था जिसने बहुत ही सुन्दर बगीचा बना रखा
था और उसमे कोनों में फलदार पेड़ जैसे आम और अमरुद के लगा रखे थे | जब जब फलों का
मौसम आता तो आसपास के बच्चे. आकर उनसे फल तोड़ लेते थे जो बाहर के तरफ लटके रहते थे
| मैंने अक्सर उनकों उन बच्चों से लड़ते और झगड़ते देखा था इसलिए कभी भी उनके पेड़ों से
कोई गफल नहीं लिया | एक दिन रविवार दोपहर को किसी बच्चे के रोने और चीखने की आवाज
ने नींद खोल दी क मैंने बाहर आकर बालकोनी से झांका तो देखा की नीचे के घर वालों ने
एक दो छोटे बच्चों को प्क़कड़ लिया है और उनके हाँथ में अमरुद देख कर उनकी पिटाई कर
रहे थे और जेल भेजने का भय दिखा रहे थे | मैंने नीचे उतर कर उन्हें समझा बुझा कर
बच्चों को छुड़ाया और वापस भेज दिया | वो चिल्लाते हुये बोले “ कुछ भी संस्कार नहीं
सिखाएं हैं इनके माँ बाप ने इन्हें | दूसरो के मेहनत के फल दिन दहाड़े चोरी करते
हैं | शर्म भी नहीं आती इनको |’ मुझे भी दुःख हुआ की छोटे छोटे बच्चे केवल अमरुद
के लिए पिट गए थे और माँ बाप को बुरा भला सुन रहे थे | खैर जैसे तैसे मामला सुलझ
गया | बात आयी गयी हो गयी फिर बच्चों ने उनके पेड़ों से फल तोड़ना बंद कर दिया | या
तो वो खुद ही फल तोड़ते या फिर उन्हें पेड़ पर ही चिड़िया या कौव्वे खा कर गिरा देते |
मैं भी इस बात को भूल गया |
विरासत का पेड़
गर्मी का मौसम आ गया , बच्चों की छुट्टियां लग गयी और वो पिकनिक की मांग करने लगे | ऐसे में हम दोस्तों ने पास के ही एक गाँव जहां पर भगवान् शिव का एक प्राचीन मंदिर था वहां जाकर पिकनिक मनाने का तय किया | रविवार की सुबह सब परिवारों ने मिल लकर खाना बनाया , किसी ने पूरी ताल ली किसिं ने सब्जी , किसी ने पुलाव और किसी ने मीठा बनाया | हमने पानी की बोतलें और कुछ नमकीन भी साथ रख लिया और सुबह ९.३० पर दो करों से उस गाँव की और चल दिए | रास्ता उबड़ खाबड़ था | भारत के इस कोने में विकास आ ने में अभी काफी देर थी | जैसे तैसे पूछते पाछते हम उस मंदिर तक पहुंचे तब दोपहर के १२ बज गए थे मन्दिर बंद होने वाला था . जल्दी जल्दी भगवान् के दर्शन किये | फिर थोड़ा आराम करने के बाद सोचा चलो खाना खा लिया जाए | मंदिर एक भीड़ भाड़ भरी जगह में था और आसपास बहुत ही गन्दगी फैली हुई थी | जब हमने मंदिर परिसर में बैठकर खाना कहाने के लिए अपने थैले खोले तो पुजारी ने हमें नियमों का वास्ता देकर वहां ऐसा करने से मना कर दिया | मन मार कर हम वापस लौट चले | दोपहर के एक बज रहे थे कास कर भूख लग रही थी ऐसे में हमने तय किया की रास्ते में ही कोई अच्छी जगह रोक के खाना खा लिया जाये | ऐसे ही जगह ढूंढते हुए हम आधा रास्ता पार कर लिए भूख और बढ़ गयी| तभी हमने देखा के गाँव के रास्तें में एक जगह सड़क किनारे आमों के पेड़ों का झुरमुट हैं | वहां साफ़ सुथारा छोटा सा हिस्सा था और पेड़ों की छाया में ठंडक भी थी | गर्मी से बचाव का ये एक बहुत सुन्दर स्थान था | वहां हमने देखा की दो तीन चारपाइयां बिछी हुई है और उसमे दो बुजुर्ग लेते हुए थे | हमने सड़क किनारे गाड़ियां रोकी और उन बुजुर्गों के पास जाकर कहा “ बाबा हम लोग शहर से आये हैं मंदिर में दर्शन करने | वापस लौट रहे थे तो सोचा दोपहर का खाना खा ले | यदि आप हमें अनुमति दे तो इन पेड़ों के नीचे बैठकर हम खाना खा ले |” ये सुनकर बुजुर्ग मुस्कुराए और प्यार से बोले “ इसमें पूछने की क्या बात हैं बबुआ ये भी तो तुम्हारा ही गाँव हैं | आराम से बैठों और खाना खाओ |” इत्ना कह्कर उन्होंने पास में खेल रहे दो तीन बच्चों को बुलाया और दो चार चारपाई मंगवा दी | बच्चों ने पेड़ों के बीच चारपाइयां बिछा दी | हम उन्हें धन्यवाद देकर खाने का सामान खोलने लगे | तभी एक दोस्त बोला “ यार प्याज और नमक तो लाना ही भूल गया |” ये सुनकर बुजुर्ग बोले “ बबुआ पास ही हमारा गाँव हैं वहां किसी भी घर में जाकर ले लो |” मैं गाँव में गया और पहला घर खटखटाया तो एक स्त्री बाहर आयी | मैंने उससे प्याज और नमक पूछा , तो वो अन्दर गई और चार पांच प्याज और एक पुडिया में नमक ले कर आ गयी | मैंने उससे प्याज और नमक ले कर उनकी कीमत पूछी |
विरासत का पेड़
तो वो
मुस्कुरा कर बोली “ बाबूजी घर वालों से भी कोई पैसा लेता है क्या | आप इन्हें ऐसे
ही ले जाइए और कुछ भी चाहिए तो बेहिचक पूछ लीजिएगा |” मैं किकर्तव्यविमूढ़ हो कर
उसे देखता रहा और वापस अपने परिवार वालों के पास आ गया |
वहां
आकर देखा तो बच्चों ने दो तीन बाल्टी कुएं का ताज़ा पानी लाकर रख दिया था | सब लोग
हाँथ मुंह धो चुके थे मैंने भी हाँथ मुंह धोया तब तक हमारे पत्नियों ने भोजन
थालियों में परोस दिया था | मैंने बुजुर्ग और बच्चों से कहा “ बाबा आप लोग भी
हमारे साथ भोजन करले | “ बुजुर्ग बोले “ बबुआ हम सब ने तो भोजन खा लिया है | आप
लोग आराम से खाओं तब तक हम खेत का एक चक्कर लगा कर आते हैं | हम लोगों ने बहुत ही
आराम से ठंडी ठंडी हवा का आननद लेते हुए दोपहर का भोजन किया | मैंने बच्चों को
मीठा देने की कोशिश की तो उन्होंनेभी लेने से मना कर दिया | तभी वो बुजुर्ग लोग
लौट आये और उन्होंने बच्चों को इशारा कर दिया | सभी आम के पेड पके हुए आमों से
लादे हुए थे | आनन फानन में बच्चे बंदरों जैसे पेड़ पर चढ़ गए और देखते ही देखते ढेर
सारे आमों को इकठ्ठा कर दिया | अक्मसे कम दस किलो आम होंगे | बुजुर्ग बोले “बेटे आप लोगो ने खाना खा लिया तो अब हमारे गाँव के इन
आमों का स्वाद चखो |” हम थोड़े सकुचाये पर जब उन्होंने जिद की तो हमने हाँ कर दी |
बच्चों ने दौड़कर कुएं से पानी ला कर सब आमों को धोया और हमें दे दिया | हम आमों को
दबदबा कर चूसने लगे | इतना मधुर और खुशबू भरा आम हमने कभी नहीं खाया था | सारा
परिवार आमों का मज़ा उठाने लगा | आमों को निपटा कर हमने आपस में इशारा किया | मैंने
अपनी जेब से दो सो रुपये निकाल कर उन बुजुर्गो को दिए | रुपये देखकर वो आश्चर्य
चकित हो कर बोले “ बबुआ ये पैसे क्यों दे रहे हो |” मैंने कहा “ बाबा , आपने हमें
इतने मीठे और्रस्भारे आम खिल्लाये है ये उनकी कीमत समझ रख लीजिये |” बुजुर्गों ने
पहले एक दूसरे को देखा और फिर हमें देखकर रुपये वापस कर बोले | बबुआ , ये आम हमारे
नहीं हैं “ तो मैंने आश्चर्य से पूछा “ तो किसके हैं बाबा , हम उन्हें ये पैसे दे
देते है |” बुजुर्ग हंसने लगे और बोले “
बबुआ उनको आप पैसे नहीं दे सकते |” मैंने पूछा “ क्यूँ बाबा |” वो बोले “ बबुआ ये
आम के पेड़ तो हमारे परदादा ने लगाए थे | ये तो हमारी विरासत जके पेड़ हैं इन पर सब
का हक है | सालों से ये पेड़ हमें अपने फल देते आ रहे हैं और हम इन्हें दादा परदादा
का आशीर्वाद समझ कर खाते आ रहे है | हम इसके पैसे लेका उनकी आत्माओं को दुखी नहीं
कर सकते | उन्होंने तो ये पेड़ सभी के लिए लगाए तह अब हम इसपर अपना अधिकार कैसे बोल
सकते है |’ यह सुनकर मैं भौचक्का रह गया ये एक गान वाले है अनपढ , गरीब इन्हें
पैसों और सम्मान की चाह नहीं हैं वहीँ मेरे पढ़े लिखे अमीर पडोसी बच्चों को अमरुद के लिए मारते हैं | मेरा
सिर शर्म से झुक गया और मैं सोचने लगा की शायद भर्तिया संस्कार आज भी गाँवों में
ही ज़िंदा है जहाँ पर “वसुधैव कुटुम्बकम”
की मान्यता आज भी जीवंत है |
विरासत का पेड़
थोड़ी
देर बाद हम ऐसे ही उन बुजुर्गों से बात करने लगे और उनका खेत देखने गए | उनसे बातचीत
में पता चला की वो गाँव बहुत ही पिछड़ा हुआ है | न वहां कोई समाचार पत्र आता है क्योंकि
अधिकांश आबादी अनपढ है और गाँव की पंचायत में सरकार ने एक टेलीविजन दिया है जिसे
सरपंच ने अपने घर लगा दिया है और कभी कभी गाँव वालों को उसमे फिल्म दिखाता है |
१९९७ में भी उनकों विश्वास था की पूर्व प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी जी जीवित हैं
और कभी कभी पास के गाँवों में आती हैं | हमने उन्हें बताया की इंदिराजी का
स्वर्गवास तो १५ वर्ष पूर्व हो गया हैं और
वो उनकी पोती को इंदिरा जी समझ रहे है पर वो लोग मानने के लिए राज़ी नहीं हुए | हम
समझ गए की उनको उनकी मान्यताओं के साथ ही जीवन जीने देना चाहिए | खैर शाम ढलने लगी
थी,| हम लोग वापस गाड़ियों में बैठ गए और अपने घर आ गए और अपने साथ एक बहुत बड़ा सबक
और विश्वास की एक किरण लेकर आये | सबक, यह की इंसान, इंसान पढने लिखने से नहीं संस्कारों
से बनता है और दूसरा की हम जो कुछ भी इस धरा पर करते हैं , चाहे वो मेहनत हो ,
निर्माण हो या वृक्षारोपण हम सब अपनी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाते हैं
| ह्मारे साथ में कुछ नहीं जाता और जो इस
धरा से मिलता है वो इसी धरा को सम्पर्पित करना पड़ता हैं | इस एक वाकये ने हमारी
जीवन भर की सोच को बदल कर रख दिया और आशा हैं की इस कहानी को पढ़ने वालों की सोच को
भी बदलने का प्रयास किया होगा |
धन्यवाद
|
Noorhasan
06-Jun-2021 02:23 PM
अति सुन्दर
Reply
PREMCHAND
06-Jun-2021 02:10 PM
आभार
Reply
Gyan singh
06-Jun-2021 10:55 AM
badhiya
Reply